Friday, March 26, 2010

आखिर क्या बदलना है , यह तो तय हो ?

अवहेलना । आत्म ग्लानी से क्षुब्ध लेकिन स्वीकार करने में अक्षम . तो घुटन और गुस्सा । सबसे शिकायत । एक नकारात्मक भावना । ऐसी मानसिकता में सुदरता देखकर चिढ होती है । जिस भी चीज से ख़ुशी , सुन्दरता , सम्पनता , सफलता , प्रतिष्टा का बोध होता है उस पर गुस्सा आता है ईर्ष्या होती है । यह मानसिकता क्योँ बनी ?बीसवी सदी के उतरार्ध में यह सवाल दुनिया भर में उठ रहे है -- पश्चिम के संपन्न देशो में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशो में भी । अमेरिका से आवारा हिप्पी और 'हरे राम हरे कृष्ण ' गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते है और भारत का युवा लालायित रहता है की चाहे चपरासी का काम मिले अमेरिका में रहू ।
आज के नई पीढियों के सामने आस्था का संकट है । सब बरे उनके सामने नंगे है । आदर्शो , सिधान्तो ,नैतिकताओ की धज्जिया उरते वे देखते है । वे धूर्ता, अनैतिकता , बेईमानी नीचता को अपने सामने सफल और सार्थक होते देखते है । मूल्यों का संकट भी उनके सामने है । सब तरफ मूल्यहीनता दिखती है । बाजार से लेकर धर्मस्थलो तक । वे किस पर आस्था जमाये और उसके पद चिन्हों पर चले ? किन मूल्यों को माने ?
पिता कहते है -- हम पिता , गुरु , समाज के आदरणीयो की बात सर झुका कर मानते थे । अब ये लरके बहस करते है । किसी की नहीं मानते ।क्यों नहीं माने वो ? कितनी जानकारी ही थी उन्हे ?पुरे शहर में सौ अख़बार , दो चार रेडियो , गुरु, पिता , समाज के नेता आदि की कमजोरिया नहीं जानते थे । आज के बच्चे अख़बार ,टीबी ,रेडियो,से , इंटरनेट से देश को कौन कहे समाज के कोने कोने से लेकर ब्रह्माण्ड तक की घटना को जानते है । समाज के नियामको के छल ,कपट ,प्रपंच , दुराचार , धर्माचारों की चरित्रहीनता , हर किसी की दोहरी जिन्दगी , तो विश्वास क्यों न टूटे ? यह पीढ़ी विध्वंसवादी ,अराजक ,उपद्रवी ,क्यों न हो ? लेकिन सिर्फ आक्रोश आत्म क्षय है । या फिर बरो का यथावत अनुकरण तो विकास के विरुद्ध है । अर्वाचीन में तो यही दो धरा है - विध्वंसक या यथावत अनुकरण ।
एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जर और दकियानूसी हो गई है । वे अपने पूर्वजों से अधिक तत्ववादी ,बुन्याद परस्त हो गये । जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी को पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की और उसमे सुख है तो वह पीढ़ी कोइ परिवर्तन नहीं कर सकती । उनका यह तर्क सही नहीं है की जब सभी दलदल में फसें है तो हम है तो क्या हुआ । यदि सभी दलदल में फसे है तो नए लोगों को फसें लोगो को निकलना चाहिए यो फिर उन्हे भी दलदल में घुस जाना चाहिए । यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारन हुआ है । हमे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराएयों को समझ उन्हे दूर करना है न की उनकी बुराएयों और गलत परम्पराओं का उतराधिकारी बनाना है

1 comment: